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अना॑यतो॒ अनि॑बद्धः क॒थायं न्य॑ङ्ङुत्ता॒नोऽव॑ पद्यते॒ न। कया॑ याति स्व॒धया॒ को द॑दर्श दि॒वः स्क॒म्भः समृ॑तः पाति॒ नाक॑म् ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

anāyato anibaddhaḥ kathāyaṁ nyaṅṅ uttāno va padyate na | kayā yāti svadhayā ko dadarśa divaḥ skambhaḥ samṛtaḥ pāti nākam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अना॑यतः। अनि॑ऽबद्धः। क॒था। अ॒यम्। न्य॑ङ्। उ॒त्ता॒नः। अव॑। प॒द्य॒ते॒। न। कया॑। या॒ति॒। स्व॒धया॑। कः। द॒द॒र्श॒। दि॒वः। स्क॒म्भः। सम्ऽऋ॑तः। पा॒ति। नाक॑म् ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:14» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:14» मन्त्र:5 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वानों के गुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो विद्वान् (अनायतः) दूर नहीं अर्थात् समीप वर्त्तमान (अनिबद्धः) शत्रुवान् पुरुष के समान एकत्र न ठहरनेवाला (अयम्) यह (न्यङ्) नित्य आदर करता वा प्राप्त होता (उत्तानः) ऊपर को विस्तरित-सा स्थित (कथा) किस प्रकार (न) नहीं (अव, पद्यते) नीची दशा को प्राप्त होता है और (कया) किस (स्वधया) अपनी गति से (याति) चलता है (समृतः) उत्तम प्रकार सत्यस्वरूप (दिवः) मनोहर सुख के (स्कम्भः) घर का आधार खम्भा जैसे बीच में ठहरे वैसे (नाकम्) सुख की (पाति) रक्षा करता है, इसको (कः) कौन (ददर्श) देखता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वन् ! जीव यह नीचे की दशा को किस रीति से न प्राप्त होवें जो अविद्या आदि बन्धन का त्याग करे तो, किस कर्म से सुख को प्राप्त होता है जो धर्म का अनुष्ठान करे, कौन कामनाओं से पूर्ण होता है, जो परमात्मा को देखे ॥५॥ इस सूक्त में अग्नि, विद्वान्, स्त्री और पुरुष के कृत्य वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥५॥ यह चौदहवाँ सूक्त और चौदहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्गुणानाह ॥

अन्वय:

यो विद्वाननायतोऽनिबद्धोऽयं न्यङ्ङुत्तानः कथा नावपद्यते कया स्वधया याति समृतो दिवः स्कम्भ इव नाकं पातीमं को ददर्श ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अनायतः) अदूरभवः (अनिबद्धः) परवदेकत्र न स्थितः (कथा) कथम् (अयम्) (न्यङ्) यो नित्यमञ्चति (उत्तानः) ऊर्ध्वं तनित इव स्थितः (अव) (पद्यते) (न) (कया) (याति) गच्छति (स्वधया) स्वकीयया गत्या (कः) (ददर्श) पश्यति (दिवः) कमनीयस्य सुखस्य (स्कम्भः) गृहाधारको मध्ये स्थितस्तम्भ इव (समृतः) सम्यक्सत्यस्वरूपः (पाति) (नाकम्) सुखम् ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वन् ! जीवोऽयमधोगतिं कथं नाप्नुयाद् यद्यविद्यादिबन्धनं त्यजेत् केन कर्मणा सुखं याति यदि धर्ममनुतिष्ठेत् कः पूर्णकामो भवति यः परमात्मानं पश्येदिति ॥५॥ अत्राग्निविद्वत्स्त्रीपुरुषकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥५॥ इति चतुर्दशं सूक्तं चतुर्दशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे विद्वाना ! जीव कोणत्या प्रकारे नीच दशेला पोचणार नाही? जर त्याने अविद्या इत्यादी बंधनाचा त्याग केला तर, कोणते कर्म केल्यास सुख प्राप्त होईल? जर त्याने धर्माचे पालन केले तर, कोण कामनांनी पूर्ण बनतो? जो परमात्म्याला पाहतो (जाणतो). ॥ ५ ॥